Sunday, November 18, 2007

ख़त आया है

ख़त आया है।

कोई लिफ़ाफा नहीं। कोई अंतरदेसी नहीं..न ही कोई पोस्टकार्ड

ई-मेल भी नहीं।

ख़त आया है।

आसमां में सात तिरछी रेखाओं की स्याही से इसे लिखा है

बादल भी उसे रंग देने के लिए कुछ सांवले पड़ गए

धरती ने मुस्कुराना शुरू कर दिया,

जब बूंद-बूंद अक्षर पढ़ना शुरू किया

खुशी से झूम उठी वो,

अंग-अंग मस्ती में भिगो गया...

वो बांवरा...ख़त

इठलाता सपना

दे गया।

Wednesday, November 14, 2007

पानी से आसमां का मिलन

पिछले दिनों मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल जाना हुआ। मैनें यहां करीब पांच साल बिताए। पुरानी यादें ताज़ा हो गईं। यूं तो भोपाल बहुत खूबसूरत शहर है। वहां का दो तालाब हैं। एक बड़ा तालाब, जिसे लोग लेक व्यू के नाम से जानते हैं। यहां बहुत भीड़ होती है। दूसरा शाहपुरा, छोटा तालाब। ये छोटा है, यहां ज्यादा भीड़ नहीं होती। मुझे ये बेहद पसंद है। ये गवाह है मेरी हर छोटी-बड़ी खुशी, छोटे-बड़े दुख का। जब भी मन बहुत खुश हुआ या बहुत उदास, इसी से आकार बांटा। इतने साल बाद जब इसे देखा तो लगा पुराने दिनों में लौट गए।
किसी ने सच कहा है यादें हमेशा तकलीफ देती हैं। अच्छी हों तो उनके अब न होने का ग़म। बुरी हों तो भी भारी मन। लेकिन इनके बिना जिया भी तो नहीं जा सकता।






Thursday, August 16, 2007

क्या मां निभाएगी ज़िम्मेदारी?

मृत्युदंड, प्रकाश झा की फिल्म। हालांकि काफी पुरानी फिल्म है लेकिन फिल्म का जो विषय है, वो कभी पुराना लगता ही नहीं। औरत पर अत्याचार। बिलासपुर के एक गांव की कहानी कही है इसमें। बिलासपुर, छत्तीसगढ़ का एक ज़िला। पिछले दिनों कहीं पढ़ा मध्यप्रदेश, जो कि छत्तीसगढ़ का पड़ोसी या ये कहें बड़ा भाई है। उसमें हर एक घंटे में एक लड़की से बलात्कार होता है और हर रोज़ एक लड़की सामुहिक बलात्कार की शिकार होती है। आंकड़े यकीनन चौंकाने वाले हैं। दिल दहल गया। जब दिल्ली में बलात्कार की कोई ख़बर आती है, तो तमाम हेडलाइन बन जाती हैं, दहली दिल्ली, दिल्ली में बलात्कार, वगैरह-वगैरह, लेकिन पूरे देश में औरतों की हालत कितनी ख़राब है ये इन ऑंकड़ों से साबित होता है। ये तो केवल एक राज्य की कहानी है, वो भी सरकारी दस्तावेज़ों में, और अनुभव कहता है कि सरकारी आंकड़ों को दो या तीन गुना मानकर, सच्चाई मानी जानी चाहिए, तब तो दिल रूआंसा हो जाता है। क्या हालत है हमारी आधी आबादी की।

भोपाल में मध्यप्रदेश के अनुपूपुर ज़िले की एक लड़की आई, राज्यपाल से यह कहने की मुझसे टीआई ने पांच पुलिसवालों के साथ मिलकर..बलात्कार करने की कोशिश की। जान निकल रही थी.. उसकी जब वो ये बातें सोचकर मीडिया को बता रही थी। सच, गुस्सा आता है, अपने समाज पर। जब ये बातें किसी से करो तो अकसर ये कहकर चुप करा दिया जाता है कि महिलावादी भाषण बंद करो। अरे, हम चुप हो जाएं.. लेकिन आदमी अपनी हरकतों से बाज न आए, ये कहां तक सही है।

दिन में शायद ही ऐसा कोई वक्त होगा..जब हम ये ख्याल किए बिना जी पाएं कि हम लड़की हैं,इसलिए हमें संभल कर रहना चाहिए। बस स्टाप पर खड़े होते हैं... तो कुछ रईसज़ादे कार में बैठकर...अंदर से गंदे इशारे करते हैं.. कभी-कभी उठा लेने की धमकियां देते हैं, उनके लिए शायद ये एक टाइमपास खेल हैं, उनकी मर्दानगी साबित हो गई और उन्होंने कुछ किए ही लड़की को सहमा दिया। लेकिन इस दौरान हमारे दिल पर क्या गुज़र गई.. कोई शायद नहीं समझ सकता। कितनी बातें हैं जो यूं ही सहन कर जाते हैं हम.. कभी कभी तो लगता है कि शोषण भी दिनचर्या का एक हिस्सा हो गया है। बस में कोई जानबूझकर धक्का मारे तो हम उसे नज़रअंदाज कर देते हैं, खुद पर गुस्सा आता है लेकिन सह जाते हैं। इस तरह की कितनी ही बातें हैं, जो सहने वाले भी जानते हैं और करने वाले भी। लेकिन ज़िंदगी चल रही है।

औरत तो बहुत बाद की चीज़ हैं, मां,बहन, बेटी किसी को कोई नहीं बख्शता। जो इसे किसकी गलती मानेंगे? क्यूं नहीं रोका जा सकता ये सब। क्या मां अपने बेटे को कभी समझाती है कि उसकी एक फब्ती भी किसी को कितना डरा सकती है। क्यूं नहीं ये ज़िम्मेदारी घरवाले निभाते, कि बचपन से अपने बच्चों को समझाएं कि औरत की इज़्जत करना भी उसकी ज़िम्मेदारी है। मृत्युदंड का आखिरी डॉयलॉग यही कहता है। जब छोटी बहु कहती है. कि मैं अपने बच्चे को स्नेह से पालूंगी, उसे सिखाऊंगी कि अन्याय कभी करना नहीं, और अन्याय कभी सहना नहीं। क्या ये सीख हर मां अपने बच्चे को देती है? अगर दे तो शायद बलात्कार की आंकड़े कुछ कम ज़रूर हो सकते हैं।

Monday, June 11, 2007

डायरी के कुछ पन्नों से...

मैंने इस देश में जन्म लिया. बहुत वक्त तक समझी नहीं कि क्या मतलब है यहां रहने का,किताबों में पढ़ा मेरा देश महान। समझ में नहीं आया बस मान लिया। धीरे-धीरे इसका इतिहास पढ़ा,धर्म के बारे में जाना। जाना कि बचपन जिन लोगों के बीच बिताया,वो हमसे अलग थे। क्या केवल इसलिए क्योंकि वो मुसलमान थे। उनके घर खाना खाते, खेलते कूदते वक्त कभी इस बात का एहसास नहीं हुआ.. अतीत के आईने में झाकूं तो पहला दोस्त मेरा अतीक था। आसिफ, अफ़ज़ल और मुन्नी। उस वक्त तो लगता ही नहीं था.. उनके नाम ऐसे क्यूं हैं... मुझ जैसे या मेरे भाई-बहनों की तरह क्यूं नहीं.. मुझे उसका मतलब क्यूं पूछना पड़ता है। इतना सोचा ही नहीं। मैदान में जब साइकिल चलाते वक्त आसिफ ने मुझे ढोकर मारी तो मुझे उस पर गुस्सा आया.. लेकिन जब उसने गिल्ली-डंडा में अपना पार्टनर बनाया.. तो सारा गुस्सा छू हो गया। जिस मोहल्ले में रहते थे.. याद है एक वक्त वहां आग लगी थी... लगी थी या लगई गई.. कुछ याद नहीं.. उसमें मुन्ना भाई की वो स्कूलट भी जल गई... जो आंख में गुल्ली की चोट लगने पर मुझे अस्पताल ले कर गई थी। किसने जलाई क्यूं जलाई कुछ समझ नहीं आया। कुछ दिनों बाद सब ठीक हो गया, हम बच्चे फिर बिजली गुल होने का इंतज़ार करने लगे.. ताकि आंखमिचौली खेल सकें।आज भी वो दिन मेरी ज़िंदगी के सबसे खुशनुमा दिनों में से हैं। जिन्हें भुलाना, खुद को भुलाने जैसा होगा। कुछ वक्त बाद हमने मोहल्ला छोड़ दिया... हम ऐसी जगह आकर रहे.. जहां अब नाम प्रीति, सुरेश.. राजन और जोशी होने लगे। तब भी समझ नहीं आया कि यहां किसी का नाम अतीक क्यूं नहीं है। जहां रह रहे थे... वहां लंबे समय तक कोई दुकान नहीं जली। कुछ दिनों बाद सुना कि पुराना मोहल्ला खाली हो गया है। अब वहां कोई नहीं रहता। सारे खेल छूट गए.. अब मैदान नहीं केवल छत है.. जहां पर खड़े होकर .. आज भी पुराने मोहल्ले का मैदान दिखाई देता है। मैं बड़ी हो गई.. बचपन पीछे छूटने लगा.. लोगों ने मुझे बता दिया.. कि मैं कौन हूं... और वो कौन थे। हममें अंतर क्या है। अब मन सोचता है कि जिसने भी ये नारा दिया.. "मेरा भारत महान".. वो "हमारा" लगाना क्यूं भूल गया। सबने देश को अपने-अपने हिस्से के हिसाब से बांट लिया। किसी ने धर्म पर कब्ज़ा किया.. तो किसी ने ज़मीन के टुकड़े पर.. कोई मोहल्ला किसी धर्म के नाम हो गया। इन सब ने "मेरा" और "भारत" शब्द का मतलब तो समझा दिया। लेकिन अब "महान" कान में सीसे की तरह चुभता है। किस महानता पर गुरूर करूं। अपने भारतवासी होने पर, हिंदू होने पर या मुसलमान होने पर। महानता तो किसी में भी नज़र नहीं आती।

Tuesday, June 5, 2007

सफेद रंग की स्याही

सफेद, ऐसा रंग जिस पर जो भी रंग चढ़ाओ चढ़ जाता है। उसे सजाता है,संवारता है, सुंदर बनता है। जिसने जैसा चाहा, लोगों ने उसका अपनी तरह इस्तेमाल किया। कभी उस पर दूसरा रंग चढ़ा दिया तो कभी दूसरे रंग के साथ मिलाकर नया रंग बना दिया । अपनी पहचान बनाए रखने की जिद कभी नहीं की उसने। किसी को नई ज़िंदगी दी, किसी के प्यार में अपनी ज़िंदगी लुटा दी।
ज़िंदगी तो जी रहा था वो लेकिन ऐसी जिंदगी जिसमें केवल सांसो का आना-जाना ही जारी था..धड़कन की गूंज तक नहीं। पता नहीं किस कोने में कुछ दबी हुई उम्मीदें ज़िंदा रखे हुएं थी उसे।
वो सफेद रंग, प्रतीक है शांति का, सद्भाव का, पवित्रता का। लेकिन खुद उसके जीवन में शांति कहां? सब रंगों को सहारा दिया उसने लेकिन खुद पर सफेद रंग न चढ़ा सका। शिकवा करे किससे, शिकायत भी नहीं करता वो। रंगों की महफिल में खो जाता है अक्सर । उसमें ऐसा गुम हो जाता है कि खुद को भुला बैठता है।
बस खुशी है तो इस बात की... कि इन सब के बावजूद उसे कोई खतरा नहीं। खुशी में लोग भले ही भुला दें उसे.. गम हमेशा उसे याद करता है। जब-जब ज़ीवन की तड़क-भड़क मन को बोझिल कर देती है,मन उसी सफेदी की ओर भागता है और शायद यहीं उसकी उम्मीदें धड़कनों को सुकून पहुंचा रही थीं।

Sunday, April 15, 2007

हौसले को सलाम


भेजा फ्राय, बहुत दिनों बाद एक ऐसी फिल्म देखी जिसमें मन को हंसाने के लिए मजबूर नहीं करना पड़ा। जो हंसने के शौकीन हैं और जॉनी लीवर या चैनल पर हंसी के नाम पर आ रही नौटंकी से बोर हो गए हैं, उनके लिए ये फिल्म एक रियल मसाला है। फिल्म का सुरूर कुछ उतरने के बाद जब उसकी कास्ट के बारे में सोचा तो अचानक ध्यान सारिका के ऊपर गया। वो सारिका जिसने रजत पटल पर पिछले कुछ महीनों में ऐसी एंट्री की है..जो शायद अपने पुराने वक्त में नहीं कर पाईं। पहले परजानिया फिर भेजा फ्राय। दोनों ही फिल्मों में उनके अभिनय की तारीफ की गई है। सारिका उन तारिकाओं में से हैं जिन्होंने बचपन से लेकर अब तक कई किरदार निभाए हैं। बचपन में उनकी भूमिकाएं सराही गईं कभी लड़का बनी कभी लड़की। लेकिन जब लीड रोड में आईं तब तक हमारी इंडस्ट्री का वो दौर चल रहा था.. जहां हिंदी सिनेमा भटका सा लगता था। उस दौर में उनकी पहचान मेरे लिए न के बाराबर है। दूसरी बार मुझे चर्चाओं में वो तब याद आईं जब उन्होंने कमल हसन से शादी के बाद अपना सिर मुंडाया। अफवाहें ये रहीं कि कमल हसन की सफलता के लिए उन्होंने ऐसा किया है.. हकीकत पता नहीं। उसके बाद पता चला कि कमल और सारिका का तलाक हो गया है। वो खो सी गईं..लेकिन जब लौंटी तो उसी विश्वास बल्कि ये कहें पहले से ज्यादा विश्वास के साथ।

कुछ इसी से मिलती जुलती कहानी अमृता सिंह की भी है। वो अमृता सिंह जो अपने फिल्मी करियर से ज़्यादा चर्चाओं में इसलिए रहीं.. क्योंकि उन्होंने अपने से छोटी उम्र के सैफ अली खान से शादी की। शादी के बाद अमृता ने बड़े पर्दे से विदाई ले ली। दो बच्चों और परिवार में अमृता ऐसी गुम हो गईं..कि कभी ख़बरों में नहीं रहीं। मीडिया का उन पर ध्यान गया तो तब जब सफल अभिनेता बनते ही सैफ की नई गर्लफेंड रोसा का जिक्र हुआ... और अमृता से सैफ का तलाक हो गया। अमृता फिर फिल्मों में आईं.. और कलयुग फिल्म में खलनायिका बन कर। उन्होंने छोटे पर्दे पर भी काम किया। सुना तो ये भी है कि एकता कैंप उन्हें अपने नए सीरियल के लिए साइन करने के लिए दिन रात एक किए हुए है। परिवार से टूटने के बाद अमृता फिर अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं। पूजा बेदी के एक इंटरव्यू में अमृता ने बड़ी बेबाकी से कहा था कि अब वो जानती हैं कि यंग नहीं हैं.. काफी समय से काम छोड़ा है..इसलिए काम मिलने में दिक्कत होगी.. लेकिन वो हारी नहीं हैं।

दोनों ही मामलों में सारिका और अमृता दोनों ने साबित किया, कि परिवार के लिए उन्होंने अपना सबकुछ छोड़ ज़रूर दिया था.. लेकिन इस बीच उन्होंने खुद को संभाले रखा। और वही हिम्मत आज उनकी सफलता की निशानी है।

ऐसे विश्वास और हौसले को सलाम।

Friday, March 2, 2007

पांचवी हेडलाइन

हेडलाइन यानि सुर्खियां, वो ख़बरें जो सबसे महत्वपूर्ण हैं। प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, हेडलाइन ..मार्केट दिलाती हैं, प्रतियोगिता कराती हैं, टीआरपी सेट करती हैं। गौर करें तो पांच या छह ही मुख्य ख़बरों को उनमें जगह मिलती है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो इसका दायरा पांच का सीमित कर दिया है। शुरू की चार हेडलाइन तक तो कोई दिक्कत नहीं....ये अक्सर सभी की एक जैसी ही होती हैं। अंतर पैदा करती है पांचवी हेडलाइन।
प्रिंट की बॉटम स्टोरी और इलेक्ट्रॉनिक की आखिरी हेडलाइन। भले ही ये पेज का आखिरी हिस्सा कवर करे या आखिरी नंबर पर हो लेकिन इसे जुटाने में बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। वैसे मान्यता है कि ये हेडलाइन कोई सॉफ्ट स्टोरी होती है। सॉफ्ट से यानि रूई की तरह नहीं.. ह्यूमन स्टोरी...फीचर या इसी से जुड़ी कोई ख़बर। वो हिस्सा जहां ख़बर से ज़्यादा भावनाएं स्थापित की जा सकें।फिर भावनाओं को भुनाना हिंदुस्तान की पुरानी आदत है। इस पर बना कोई भी सामना खूब बिकता है।
कभी तो ये बहुत आसान होती है तो कभी बहुत मुश्किल। इनमें या तो उन स्टोरीज़ को शामिल करें जो चैनल की विशेष उपलब्धि हो यानि इस मामले में मेहनत ज़्यादा है। आसान इस संदर्भ में कि वेलेंटाइन डे,किस डे, दशहरा या दीवाली इसे आसान बना देते हैं। आजकल तो नायक,. महानायकों के जन्मदिन ...इस पर छाए रहते हैं। डे स्पेशल होना...टीवी वालों के लिए राहत देता है। लता का जन्मदिन, आशा का जन्मदिन, महानायक अमिताभ बच्चन का जन्मदिन....भगवान इनकी उम्र लंबी रखे कोई और दे न दे...टीवी वालों के मन से ये दुआ ज़रूर निकलती होगी। बर्थडे आया नहीं कि बन गई टीम और सब जुट गए दुआएं जुटाने में। केवल जन्मदिन ही नहीं ड्राइ दिनों में तो मरण दिन भी याद आ ही जाता है। ड्राइ दिन यानि जब कोई मुद्दा खेला न जा सके। ये टीवी की भाषा है, जो भले ही बुरी लगे लेकिन अपनाई जाने लगी है। मुद्दे पर लौटते हैं,किशोर की पुण्यतिथि, इंदिरा या नेहरू की पुण्यतिथि....ड्राइ दिनों में डूबते को तिनके के सहारा के समान हैं। हर साल की मेहनत छोड़िए पिछले साल का archive निकालिए....कुछ जोड़िए कुछ घटाइए....और बना डालिए नये पैकेज,आपकी पांचवी हेडलाइन तैयार है।

Friday, February 16, 2007

सहम गया बचपन

बड़े-बड़े शहर और इनके बीच तंगदिल लोग,लोगों की फितरत की तरह ही सकरीं गलियां,जहां आना-जाना हमेशा से एक सवाल लगता है। इन्हीं तंग गलियों के बीच रहती हूं मै। हालांकि घर अपना नहीं लेकिन जो किराया देती हूं,वो अपनी ही कमाई है।
मेरा घर औरों से कुछ अलग है। अलग इस तरह कि घर के सामने सूरज को आराम करने की जगह मिलती है। सामने कुछ खुली जगह है। बागीचा या वरांदा नहीं, एक खाली प्लॉट है,जिस पर एक बड़ा सा लोहे का दरवाज़ा लगा है। ये जगह कॉलोनी के बच्चों के लिए खेल का मैदान है। उनके शोर-गुल का मुझपर असर पड़ता है या नही ये वो सोचते नहीं,हां निश्चिंत इस बात से हैं कि खाली प्लॉट के सामने कितनी ही मस्ती करें...वो डॉंटेगा नहीं। मेरे अकेलेपन में कई बार इन बच्चों की शैतानियां मुझे मेरा बचपन याद करा जाती हैं। और कई बार मुझे डिस्प्रिन का सहारा लेना पड़ता है।

बहुत बड़े-बड़े मैदान होते हैं हमारे छोटे शहरों में लेकिन इन बच्चों की किस्मत में शायद ये सब नहीं। खैर,एक दिन यूं ही चाय का कप लेकर मैं नींद भरी नज़रों से उन बच्चों में अपने बचपन की शैतानियां देख गुदगुदा रही थी,कि अचानक मेरी नज़र उस लोहे के दरवाज़े पर पड़ी..जो इन नन्हें शैतानों का ड्राइंग बोर्ड है। आड़े-तेड़े,तिरछे चित,कभी अंक...जोड़-घटाव तो कभी यूं ही कुछ भी।
इन सब के बीच मेरी नज़र उस बच्ची पर पड़ी जो महज़ 11 या 12 साल ही होगी। उसने कुछ लिखा और जल्दी से मिटा दिया,फिर दौड़ गई। मेरी नज़र उस मिटे हुए अक्षरों को जोड़ने में जुट गई। मैनें ध्यान से देखा और एकाएक सांस रूक सी गई। दरवाज़े पर लिखा वो शब्द मुझे अंदर तक कचोट गया। उस बच्ची ने बोर्ड पर लिखा था NITHARI, एक पल में ऐसा लगा मानो उनका बचपन वहीं खो गया। क्या उसे पता है निठारी में क्या हुआ? क्या यही वजह है कि वो तंग गलियों में अपनी खुशी ढूंढ रही है? खुले और बड़े मैदान उसे डराते हैं।

Sunday, February 4, 2007

बड़े लोगों के बड़े चोचले

भगवान ने अमीरों को दौलत तो बहुत दी.. लेकिन इनकी जेब में जितनी ताकत होती है, दिल उतना ही तंग होता है। ये फ़र्क अकसर एहसास करा जाता है कि वो औरों से अलग हैं। ख़ासकर दिल्ली के रेस्टॉरेंट और होटल्स में अकसर उनका ऊंचा क़द दिखाई दे जाता है। आजकल रेस्टॉरेंट में इन चमक-धमक कपड़ों से साथ कुछ मैले-कुचैले वाले कपड़े दिख जाते हैं। हैरत की बात नहीं कि वो उनके नौकर हैं.. जो उनके बच्चों को संभालने या ये कहें कि उनकी मस्ती में बच्चा कोई रूकावट न बने, इसलिए उसे अपने साथ लाते हैं। लेकिन उनकी हर हरकत बार-बार ये एहसास कराती रहती है कि उनके साथ बैठा ये आदमी या लड़की.. उनके साथ होते हुए भी उनके साथ नहीं है। यानि स्टेटस सिंबल पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए। चाहे बैठने की जगह हो.. बात करने का तरीका या नौकरों को परोसा जाने वाला खाना।

मालिक तो मालिक होटल के वेटर भी समझ जाते हैं कि गंदे कपड़ों में लिपटी...काली सी ये लड़की इन लोगों की नौकरानी है। कई बार अगर बच्चा साथ नहीं है या इतना बड़ा है कि मम्मी-पापा को नैपी नहीं बदलनी पड़ेगी...तो नौकर या नौकरानी को मालिकों से अलग...दूर किसी सीट पर बैठा दिया जाता है।

एक नहीं कई बार मेरे सामने ऐसा वाकया हुआ। दिल्ली के कनॉट प्लेस के प्रसिद्द एक दक्षिण भारतीय व्यंजन के रेस्टॉरेंट में वेटर ने नौकर को तीन बार...सीट बदलवाई। मालिक के कहे मुताबिक उसे खाने को तो दिया.. लेकिन उसकी थाली में परोसा जाने वाला हर व्यंजन...किसी भीख से कम नहीं था। खाने की हर मांग के साथ उसकी आवाज़ शर्म से दबती जा रही थी.. और वेटर की आवाज़ में उतना ही दम बढ़ता जा रहा था। वो अपने मालिकों के ठीक उल्टी तरफ बैठा था.. लेकिन उसकी आंखे आइने के ज़रिए बार-बार अपने मालिकों की प्लेट और उसके पास बैठे बच्चे की हंसी पर टिक रहीं थीं। वो बस खाना खा रहा था.. पेट भरा कि नहीं मैं नहीं जानती.. लेकिन जितनी बेज़्जती वो सह रहा था.. मेरे मुंह से निवाला गिर गया। उसने मेरी ओर मुस्कुरा के देखा.. और एक ग्लास पानी बढ़ा दिया। मेरी आंखें छलक गईं.. लेकिन उसने अपने आंसुओं को आंखों में ही छिपा लिया.. और चुपचाप बाहर निकल गया।

Thursday, February 1, 2007

फरवरी की हल्की धूप

फरवरी की हल्की धूप...कई दिनों बाद देख रही हूं...अक्सर ये नज़ारा मैं देख ही नहीं पाती हूं... मॉर्निंग शिफ्ट जो रहती है...सुबह सूरज उगने से पहले हम एयरकंडीशन कमरे में कैद हो जाते हैं..जहां ठंड तो होती है लेकिन उसमें सूरज की गरमाहट आने का एहसास नहीं होता..

बचपन में अक्सर यूं ही खिड़की पर बैठकर मैं धूप को अपने हथेली में पकड़ने की कोशिश किया करती थी... अपनी छोटी सी हथेली में जब भी धूप को बांधने की कोशिश करती तो लगता, जैसे दुनिया को खुद में समेट लिया है...मां हमेशा कहती...धूप को कभी कोई नहीं पकड़ पाया..लेकिन शायद मेरा बाल हठ देखकर वो भी खामोश हो जाती। मुझे लगता काश मेरे पास पुष्पक विमान होता और मैं झट उसमें बैठकर सूरज के पास जाती और उम्र भर के लिए उनसे कुछ धूप मांग लेती..उन्हें अपने पास एक सुनहरे पिंजरे में रखती..सोचती थी पिंजरा तो सफेद ही होता है लेकिन जब धूप उसमें रखूंगी तो वो खुद ब खुद सुनहरा हो जाएगा।

आज भी उस धूप को पकड़ने की कोशिश करती रहती हूं। इन्हीं किरणों की तरह चाहती हूं...जहां चाहूं वहां जाऊं....मुझे कोई कुछ करने से रोक न पाए...लेकिन अचानक मां की बात याद आ जाती है...और मैं संभल जाती हूं....सूरज को भी ग्रहण लगता है...तब उसकी किरणें, ये धूप कहीं नज़र नहीं आती।

बस एक सवाल!

सवाल... अपने आप में कितना अधूरापन लिए हुए है। सवाल सुनते ही ...जवाब की उम्मीद होती है, कितना अकेलापन है इस शब्द में। लेकिन कभी लगता है कि जबाव की अहमियत भी तो इसी से है। लेकिन फिर क्या वजह है कि मन कई बार सवाल करता है...लेकिन जवाब नहीं होता। कई बार जवाब जानते हुए भी मन सवाल करता है। क्यों दोनों आपस में मिलना नहीं चाहते.. जबकि दोनों जानते हैं कि एक-दूसरे के बिना दोनों का कोई औचित्य नहीं है।