Wednesday, August 27, 2008

लम्हों के दायरे

सिमटते लम्हों के बीच सांस ले रही है ज़िंदगी। सांस का हर टुकड़ा पहले थोड़ा सोचता है कि क्या अपना पूरा हिस्सा ले लूं ? कहीं ये दूसरे के लिए कम तो नहीं पड़ जाएगा? दूसरे को आसरा दूं । लेकिन वो खुद भूल रहा है कि वो आसरा दे रहा है या खुद उसके सहारे का मोहताज़ हो रहा है। इस बेखयाली में वो बस जी रहा है, ये सोचकर कि वो भी किसी के तो काम का है, उसके होने से किसी को तो कोई फर्क पड़ता है। सोचकर खुश हो लेता है। लम्हों से नाराज़गी भी अब उसे नहीं सताती। वो समझ चुका है कि हर पल जो बीत रहा है, वो लम्हों की भी मजबूरी है। पर वो जी रहा है...मन में हर दिन नई उम्मीद के साथ। लेकिन अचानक उसे एहसास होने लगा, जिसके लिए वो अपना सबकुछ दे रहा है, वो कभी कुछ लेना चाहता ही नहीं था। देने के पीछे भी उसी का स्वार्थ था। लेने वाला इसे अपनी किस्मत समझ रहा है,वो गलत भी तो नहीं है। सच ,उसकी किस्मत में लिखा था बेफिक्र जीना.. फिर वो ही सही.. जितने दिन वो साथ रहे, वो एक अकेले की मिल्कियत तो नहीं थे। दोनों ने अपने-अपने तरीके से जीवन जीने की लड़ाई लड़ी। एक ने अपनी दुनिया अलग बसा ली.. तो दूसरा उसी दुनिया में खो कर रह गया। गलत कोई नहीं...अब भी जीने की पूरी उम्मीद है उसे, लेकिन घटता दायरा दम घोंट रहा है।