Tuesday, June 5, 2007

सफेद रंग की स्याही

सफेद, ऐसा रंग जिस पर जो भी रंग चढ़ाओ चढ़ जाता है। उसे सजाता है,संवारता है, सुंदर बनता है। जिसने जैसा चाहा, लोगों ने उसका अपनी तरह इस्तेमाल किया। कभी उस पर दूसरा रंग चढ़ा दिया तो कभी दूसरे रंग के साथ मिलाकर नया रंग बना दिया । अपनी पहचान बनाए रखने की जिद कभी नहीं की उसने। किसी को नई ज़िंदगी दी, किसी के प्यार में अपनी ज़िंदगी लुटा दी।
ज़िंदगी तो जी रहा था वो लेकिन ऐसी जिंदगी जिसमें केवल सांसो का आना-जाना ही जारी था..धड़कन की गूंज तक नहीं। पता नहीं किस कोने में कुछ दबी हुई उम्मीदें ज़िंदा रखे हुएं थी उसे।
वो सफेद रंग, प्रतीक है शांति का, सद्भाव का, पवित्रता का। लेकिन खुद उसके जीवन में शांति कहां? सब रंगों को सहारा दिया उसने लेकिन खुद पर सफेद रंग न चढ़ा सका। शिकवा करे किससे, शिकायत भी नहीं करता वो। रंगों की महफिल में खो जाता है अक्सर । उसमें ऐसा गुम हो जाता है कि खुद को भुला बैठता है।
बस खुशी है तो इस बात की... कि इन सब के बावजूद उसे कोई खतरा नहीं। खुशी में लोग भले ही भुला दें उसे.. गम हमेशा उसे याद करता है। जब-जब ज़ीवन की तड़क-भड़क मन को बोझिल कर देती है,मन उसी सफेदी की ओर भागता है और शायद यहीं उसकी उम्मीदें धड़कनों को सुकून पहुंचा रही थीं।

1 comment:

Kaukab said...

dheeme dheeme utarti hai dhund.... apni bahein phailaye.... kabhi kale kabhi safed rang ka dhoka deti... na idhar.... na udhar. na sach... na jhoot.... bas dono ke beech tairta hua kuch. magar sabse pehle ek sach... Aap likhti achcha hain.....sachchee.
bas ek baat se naraz hain hum..... MOOMPHALIYAN to hamara copyright theen ab tak!