Thursday, August 16, 2007

क्या मां निभाएगी ज़िम्मेदारी?

मृत्युदंड, प्रकाश झा की फिल्म। हालांकि काफी पुरानी फिल्म है लेकिन फिल्म का जो विषय है, वो कभी पुराना लगता ही नहीं। औरत पर अत्याचार। बिलासपुर के एक गांव की कहानी कही है इसमें। बिलासपुर, छत्तीसगढ़ का एक ज़िला। पिछले दिनों कहीं पढ़ा मध्यप्रदेश, जो कि छत्तीसगढ़ का पड़ोसी या ये कहें बड़ा भाई है। उसमें हर एक घंटे में एक लड़की से बलात्कार होता है और हर रोज़ एक लड़की सामुहिक बलात्कार की शिकार होती है। आंकड़े यकीनन चौंकाने वाले हैं। दिल दहल गया। जब दिल्ली में बलात्कार की कोई ख़बर आती है, तो तमाम हेडलाइन बन जाती हैं, दहली दिल्ली, दिल्ली में बलात्कार, वगैरह-वगैरह, लेकिन पूरे देश में औरतों की हालत कितनी ख़राब है ये इन ऑंकड़ों से साबित होता है। ये तो केवल एक राज्य की कहानी है, वो भी सरकारी दस्तावेज़ों में, और अनुभव कहता है कि सरकारी आंकड़ों को दो या तीन गुना मानकर, सच्चाई मानी जानी चाहिए, तब तो दिल रूआंसा हो जाता है। क्या हालत है हमारी आधी आबादी की।

भोपाल में मध्यप्रदेश के अनुपूपुर ज़िले की एक लड़की आई, राज्यपाल से यह कहने की मुझसे टीआई ने पांच पुलिसवालों के साथ मिलकर..बलात्कार करने की कोशिश की। जान निकल रही थी.. उसकी जब वो ये बातें सोचकर मीडिया को बता रही थी। सच, गुस्सा आता है, अपने समाज पर। जब ये बातें किसी से करो तो अकसर ये कहकर चुप करा दिया जाता है कि महिलावादी भाषण बंद करो। अरे, हम चुप हो जाएं.. लेकिन आदमी अपनी हरकतों से बाज न आए, ये कहां तक सही है।

दिन में शायद ही ऐसा कोई वक्त होगा..जब हम ये ख्याल किए बिना जी पाएं कि हम लड़की हैं,इसलिए हमें संभल कर रहना चाहिए। बस स्टाप पर खड़े होते हैं... तो कुछ रईसज़ादे कार में बैठकर...अंदर से गंदे इशारे करते हैं.. कभी-कभी उठा लेने की धमकियां देते हैं, उनके लिए शायद ये एक टाइमपास खेल हैं, उनकी मर्दानगी साबित हो गई और उन्होंने कुछ किए ही लड़की को सहमा दिया। लेकिन इस दौरान हमारे दिल पर क्या गुज़र गई.. कोई शायद नहीं समझ सकता। कितनी बातें हैं जो यूं ही सहन कर जाते हैं हम.. कभी कभी तो लगता है कि शोषण भी दिनचर्या का एक हिस्सा हो गया है। बस में कोई जानबूझकर धक्का मारे तो हम उसे नज़रअंदाज कर देते हैं, खुद पर गुस्सा आता है लेकिन सह जाते हैं। इस तरह की कितनी ही बातें हैं, जो सहने वाले भी जानते हैं और करने वाले भी। लेकिन ज़िंदगी चल रही है।

औरत तो बहुत बाद की चीज़ हैं, मां,बहन, बेटी किसी को कोई नहीं बख्शता। जो इसे किसकी गलती मानेंगे? क्यूं नहीं रोका जा सकता ये सब। क्या मां अपने बेटे को कभी समझाती है कि उसकी एक फब्ती भी किसी को कितना डरा सकती है। क्यूं नहीं ये ज़िम्मेदारी घरवाले निभाते, कि बचपन से अपने बच्चों को समझाएं कि औरत की इज़्जत करना भी उसकी ज़िम्मेदारी है। मृत्युदंड का आखिरी डॉयलॉग यही कहता है। जब छोटी बहु कहती है. कि मैं अपने बच्चे को स्नेह से पालूंगी, उसे सिखाऊंगी कि अन्याय कभी करना नहीं, और अन्याय कभी सहना नहीं। क्या ये सीख हर मां अपने बच्चे को देती है? अगर दे तो शायद बलात्कार की आंकड़े कुछ कम ज़रूर हो सकते हैं।