Sunday, February 4, 2007

बड़े लोगों के बड़े चोचले

भगवान ने अमीरों को दौलत तो बहुत दी.. लेकिन इनकी जेब में जितनी ताकत होती है, दिल उतना ही तंग होता है। ये फ़र्क अकसर एहसास करा जाता है कि वो औरों से अलग हैं। ख़ासकर दिल्ली के रेस्टॉरेंट और होटल्स में अकसर उनका ऊंचा क़द दिखाई दे जाता है। आजकल रेस्टॉरेंट में इन चमक-धमक कपड़ों से साथ कुछ मैले-कुचैले वाले कपड़े दिख जाते हैं। हैरत की बात नहीं कि वो उनके नौकर हैं.. जो उनके बच्चों को संभालने या ये कहें कि उनकी मस्ती में बच्चा कोई रूकावट न बने, इसलिए उसे अपने साथ लाते हैं। लेकिन उनकी हर हरकत बार-बार ये एहसास कराती रहती है कि उनके साथ बैठा ये आदमी या लड़की.. उनके साथ होते हुए भी उनके साथ नहीं है। यानि स्टेटस सिंबल पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए। चाहे बैठने की जगह हो.. बात करने का तरीका या नौकरों को परोसा जाने वाला खाना।

मालिक तो मालिक होटल के वेटर भी समझ जाते हैं कि गंदे कपड़ों में लिपटी...काली सी ये लड़की इन लोगों की नौकरानी है। कई बार अगर बच्चा साथ नहीं है या इतना बड़ा है कि मम्मी-पापा को नैपी नहीं बदलनी पड़ेगी...तो नौकर या नौकरानी को मालिकों से अलग...दूर किसी सीट पर बैठा दिया जाता है।

एक नहीं कई बार मेरे सामने ऐसा वाकया हुआ। दिल्ली के कनॉट प्लेस के प्रसिद्द एक दक्षिण भारतीय व्यंजन के रेस्टॉरेंट में वेटर ने नौकर को तीन बार...सीट बदलवाई। मालिक के कहे मुताबिक उसे खाने को तो दिया.. लेकिन उसकी थाली में परोसा जाने वाला हर व्यंजन...किसी भीख से कम नहीं था। खाने की हर मांग के साथ उसकी आवाज़ शर्म से दबती जा रही थी.. और वेटर की आवाज़ में उतना ही दम बढ़ता जा रहा था। वो अपने मालिकों के ठीक उल्टी तरफ बैठा था.. लेकिन उसकी आंखे आइने के ज़रिए बार-बार अपने मालिकों की प्लेट और उसके पास बैठे बच्चे की हंसी पर टिक रहीं थीं। वो बस खाना खा रहा था.. पेट भरा कि नहीं मैं नहीं जानती.. लेकिन जितनी बेज़्जती वो सह रहा था.. मेरे मुंह से निवाला गिर गया। उसने मेरी ओर मुस्कुरा के देखा.. और एक ग्लास पानी बढ़ा दिया। मेरी आंखें छलक गईं.. लेकिन उसने अपने आंसुओं को आंखों में ही छिपा लिया.. और चुपचाप बाहर निकल गया।

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