Wednesday, August 27, 2008

लम्हों के दायरे

सिमटते लम्हों के बीच सांस ले रही है ज़िंदगी। सांस का हर टुकड़ा पहले थोड़ा सोचता है कि क्या अपना पूरा हिस्सा ले लूं ? कहीं ये दूसरे के लिए कम तो नहीं पड़ जाएगा? दूसरे को आसरा दूं । लेकिन वो खुद भूल रहा है कि वो आसरा दे रहा है या खुद उसके सहारे का मोहताज़ हो रहा है। इस बेखयाली में वो बस जी रहा है, ये सोचकर कि वो भी किसी के तो काम का है, उसके होने से किसी को तो कोई फर्क पड़ता है। सोचकर खुश हो लेता है। लम्हों से नाराज़गी भी अब उसे नहीं सताती। वो समझ चुका है कि हर पल जो बीत रहा है, वो लम्हों की भी मजबूरी है। पर वो जी रहा है...मन में हर दिन नई उम्मीद के साथ। लेकिन अचानक उसे एहसास होने लगा, जिसके लिए वो अपना सबकुछ दे रहा है, वो कभी कुछ लेना चाहता ही नहीं था। देने के पीछे भी उसी का स्वार्थ था। लेने वाला इसे अपनी किस्मत समझ रहा है,वो गलत भी तो नहीं है। सच ,उसकी किस्मत में लिखा था बेफिक्र जीना.. फिर वो ही सही.. जितने दिन वो साथ रहे, वो एक अकेले की मिल्कियत तो नहीं थे। दोनों ने अपने-अपने तरीके से जीवन जीने की लड़ाई लड़ी। एक ने अपनी दुनिया अलग बसा ली.. तो दूसरा उसी दुनिया में खो कर रह गया। गलत कोई नहीं...अब भी जीने की पूरी उम्मीद है उसे, लेकिन घटता दायरा दम घोंट रहा है।

Sunday, June 29, 2008

किसी की मजबूरी, किसी का मजा

आरूषि-हेमराज हत्याकांड पर मीडिया ने जो कुछ किया, अब उसे वाह-वाही दे या कोसें समझ से परे है। कुछ मीडियाकर्मी कॉलर ऊंची कर रहे हैं कि हमने पुलिस का ध्यान इस ओर दिलाया लेकिन नतीजा क्या है,सामने है। चलिए इस बहस से अगल एक दूसरी ख़बर की ओर ध्यान देते हैं। ये घटना है मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर की। जबलपुर को शायद लोग भेड़ाघाट की वजह से पहचानें, जहां संगमरमर की चट्टाने हैं। इस शहर में एक मीडियाकर्मी ने एक बुजुर्ग आदमी और महिला के सामने लोकलाज की चट्टान खड़ी कर दी। ज्यादा घुमा-फिराने से अच्छा है सीधी बात कही जाए। तो साहब वाकया कुछ ऐसा है कि एक कर्तव्ययोगी मीडियामैन घूमता हुआ कोर्ट पहुंचा, जहां उसे पता चला कि 84 साल के व्यक्ति ने अपनी 54 साल की विधवा बेटी से शादी कर ली। यकीनन ये आम बात नहीं और जब आम नहीं तो न्यूज़ तो है ही। उन्होंने पूरा पता लगाया और पहुंच गए कैमरा लेकर उस इलाके में जहां ये दोनो रहते थे। कोशिश की, कि पड़ोसी कुछ बताएं,पड़ोसियों ने कहा हम तो यही जानते हैं कि दोनों बाप-बेटी हैं, शादी कब कर ली हमें नहीं पता। उनके घर को अपने बाप का घर समझ कर मीडियामैन घुस गया अंदर. तमाम सवाल दाग दिए क्यूं किया ऐसा घिनौना कृत्य, क्या आपको लाज नहीं आई, समाज क्या कहेगा आपको.. वगैरह वगैरह। बुजुर्ग व्यक्ति ने बड़े इत्मीनान से कहा कि पहले तो ये मेरी बेटी नहीं, बेसहारा थी तो मेरे साथ रहने लगी..इसका आगे-पीछे कोई नहीं। मैं बिस्तर में बीमार पड़ा हूं..कब यमराज बुला लें, फिर कौन करेगा इसका पालन-पोषण अब संतुष्टी है कम से कम अब मेरे बाद इसे पेंशन तो मिलेगी। लेकिन भई मीडिया के ऊपर तो समाज की ज़िम्मेदारी है,कल तक जो बातें चार दीवारी में थीं उसके विजुअल्स पूरे शहर में फैल गए, चैनल ने बड़ी ख़बर मानकर खूब चलाया। जो मोहल्लेवाले कल तक झुककर नमस्ते कर रहे थे,आज थूक रहे हैं। लेकिन चैनल को क्या उसने तो आधे घंटे की टीआरपी बटोर ली। जो लोग उन्हें धिक्कार रहे हैं क्या उन्होंने एक बार भी सोचा कि अगर उन्हें अवैध संबंध बनाने ही होते तो कोर्ट के सर्टिफिकेट की क्या ज़रुरत थी, क्या जो बाप अपनी बेटियों से बलात्कार करते हैं वो बाद में कोर्ट का सर्टिफिकेट लेते हैं, या जो बहुए अपने ससुर,जेठ या देवर की हवस का शिकार बनती हैं उन्हें सर्टिफिकेट दिया जाता है। सब जानने के बाद भी ये क्यूं नहीं सोचना चाहते ही उम्र के जिस पड़ाव में वो दोनों हैं वहां शरीर की नहीं पेट की भूख ज्यादा मायने रखती है। एक पिता ने सोचा वो अपनी बेटी का भविष्य सुरक्षित कर जाए लेकिन उसकी तुलना उन बापों से कर दी गई,जिन्होंने अपनी बेटियों का जीवन नर्क कर दिया। वाह रे हमारी सोच, सच है सही-गलत आज मीडिया की नज़रों से लोग देखने लगे हैं।

Wednesday, January 16, 2008

बीस रुपये का टिकट

दिल्ली का अक्षरधाम मंदिर। विशाल परिसर में फैले इस मंदिर को विश्व में सबसे बड़ा हिंदू मंदिर होने के ख़िताब से नवाज़ा गया। सालों से सोच रहे थे कि घर में कोई बड़ा आए तो मंदिर देखने जाएं। मौका मिला और हाल में हम अक्षरधाम मंदिर घूम आए। घूम आए इसलिए कह रहे हैं क्यूंकि बार-बार दिल को समझाने के बाद भी वो महसूस नहीं कर सका कि हम मंदिर में आए हैं। भगवान के चरणों में, जो श्रद्धा मन में आनी चाहिए वो तमाम कोशिशों के बावजूद पैदा नहीं कर पाए। प्रसाद चढ़ाया नहीं, उसकी रसीद मिल गई। नारियल फोड़ा नहीं, फूल चढ़ाए नहीं, न ही धूप या अगरबत्ती लगाई, विश्वास ही नहीं हुआ कि मंदिर इन चीज़ों के बिना भी हो सकता है।

खैर, हमें तो उतनी आपत्ति नहीं हुई..लेकिन हमारी माताजी का मन नहीं माना और उन्होंने पंडित से पूछ ही लिया कि आखिर घर लौटकर क्या प्रसाद देंगे पड़ोसियों को? पंडित ने उन्हें 51 रुपये की एक पर्ची थमाई,कहा काउंटर से प्रसाद ले लीजिएगा। काउंटर पर एक अच्छी सी डिब्बी में दो मिठाई मिल गई। एहसास हो गया कि भले ही पहले प्रसाद के नाम पर हमने खूब लड्डू उड़ाए हों,लेकिन यहां प्रसाद,प्रसाद की तरह ही खाना होगा।

खैर!मंदिर, मंदिर जैसा क्यूं नहीं लग रहा? ये चोट मेरे परिवार की थी। मेरे दिल को जो दुखा गया वो था जल,जीवन और ज्योति का मिलन। जी हां, जिसे देखने के लिए 20 रुपये का टिकट लेना होता है। ठीक शाम 6.30 मिनट पर हम उस जगह पहुंच गए। सबने अपनी-अपनी सीट पकड़ ली। और थोड़ी देर बाद, एक छोटे से भाषण के बाद शुरू हुआ, लाइटिंग फव्वारे का शो। जो संगीत की धुन पर थिरका। स्वचीज़े पर बैठने वाले के हुनर की तारीफ करनी होगी, लाइट्स और पानी का अच्छा मेल किया। उनके मुताबिक शो में जीवन की शुरूआत और मोक्ष का स्वरूप बताया गया। शो ख़त्म हुआ, सबने तारीफ की, बीच-बीच में तालियां भी पींटी। लेकिन इन सब ने मेरा गुस्सा और बढ़ा दिया।

मन में बस एक ही सवाल आया, ये सैकड़ों-हज़ारों लोग 15 मिनट के इस शो के लिए, जो मेरे नज़रिए से कुछ खास भी नहीं था...20 रुपये आराम से दे सकते हैं,तो फिर क्या वजह है कि नाटक या थियेटर सूने पड़ गए हैं।

वहां तो संगीत, नृत्य, अभिनय, सब कुछ वास्तविक होता है। न केवल वास्तविक, बल्कि बदलता भी रहता है। उसमें संगीत के कई रंग होते हैं। हर विधा के रंगों से सजता है नाटक। लेकिन उसे पसंद नहीं किया जाता। अधिकतर लोग पास की जुगाड़ में रहते हैं, टिकट मुफ्त हो तो और अच्छा है,20 रुपये का टिकट भारी पड़ता है। क्यूं?

फिल्म से थियेटर का कोई मुकाबला नहीं, ये बात मान ली। होना भी नहीं चाहिए। लेकिन इस तरह के शो देखने जब लोग हज़ारों की संख्या में जुट सकते हैं तो एक कला को बढ़ावा क्यूं नहीं दे सकते।

दिल्ली में भारत रंग मंडल का महोत्सव हुआ, लेकिन तमाम खबरिया चैनल में उसकी कितनी रिपोर्ट्स आईं,सबको पता है।नया साल पहले ज्योतिष, फिर नंबर और फिर टेरो कार्ड से दिखाना वो नहीं भूल रहे।शनि कब भारी पड़ेगा, ये बता-बता कर काले कपड़े बिकवा डाले और ज्योतिषों की घर बैठे कमाई बढ़ गई। लेकिन एक-दो चैनल को छोड़ दें, तो किसी ने रंग मंडल के रंगों को अपने स्क्रीन पर नहीं बिखेरा।

इसी बात से एक दिलचस्प वाकया सुनिए। मेट्रो शहरों में 24 घंटे काम का कल्चर है। हमने अपने बॉस से छुट्टी मांगी, जो पता थी मंजूर नहीं होगी। फिर हमने कहा कि हमें सुबह की शिफ्ट दे दी जाए। वजह पूछी गई, हमने सच-सच बता दिया कि थियेटर देखने जाना है। बस फिर क्या था, वो पहले तो मुस्कुराए, फिर हमारी ओर देखकर हंसे और उन्होंने हमें बेवकूफ कहने से भी परहेज नहीं किया। बोल, इस काम के लिए भी भला शिफ्ट बदली जाती है। हम अपना सा मुंह लेकर रह गए। बहुत गुस्सा आया, लेकिन क्या कर सकते थे, इतना ही नहीं, हमारी इस बात का ज़िक्र कर, हम पर हंस कर, कई लोगों ने अपना खून बढ़ाया। लोगों को भले ही ये मज़ाक लगे, लेकिन इसका दर्द दिल में लेकर हम रह गए। जब अक्षरधाम मंदिर में फव्वारों के इर्द-गिर्द बैठी उस भीड़ को देखा, तो अचानक वो टीस फिर से कौंध गई।