Monday, June 11, 2007

डायरी के कुछ पन्नों से...

मैंने इस देश में जन्म लिया. बहुत वक्त तक समझी नहीं कि क्या मतलब है यहां रहने का,किताबों में पढ़ा मेरा देश महान। समझ में नहीं आया बस मान लिया। धीरे-धीरे इसका इतिहास पढ़ा,धर्म के बारे में जाना। जाना कि बचपन जिन लोगों के बीच बिताया,वो हमसे अलग थे। क्या केवल इसलिए क्योंकि वो मुसलमान थे। उनके घर खाना खाते, खेलते कूदते वक्त कभी इस बात का एहसास नहीं हुआ.. अतीत के आईने में झाकूं तो पहला दोस्त मेरा अतीक था। आसिफ, अफ़ज़ल और मुन्नी। उस वक्त तो लगता ही नहीं था.. उनके नाम ऐसे क्यूं हैं... मुझ जैसे या मेरे भाई-बहनों की तरह क्यूं नहीं.. मुझे उसका मतलब क्यूं पूछना पड़ता है। इतना सोचा ही नहीं। मैदान में जब साइकिल चलाते वक्त आसिफ ने मुझे ढोकर मारी तो मुझे उस पर गुस्सा आया.. लेकिन जब उसने गिल्ली-डंडा में अपना पार्टनर बनाया.. तो सारा गुस्सा छू हो गया। जिस मोहल्ले में रहते थे.. याद है एक वक्त वहां आग लगी थी... लगी थी या लगई गई.. कुछ याद नहीं.. उसमें मुन्ना भाई की वो स्कूलट भी जल गई... जो आंख में गुल्ली की चोट लगने पर मुझे अस्पताल ले कर गई थी। किसने जलाई क्यूं जलाई कुछ समझ नहीं आया। कुछ दिनों बाद सब ठीक हो गया, हम बच्चे फिर बिजली गुल होने का इंतज़ार करने लगे.. ताकि आंखमिचौली खेल सकें।आज भी वो दिन मेरी ज़िंदगी के सबसे खुशनुमा दिनों में से हैं। जिन्हें भुलाना, खुद को भुलाने जैसा होगा। कुछ वक्त बाद हमने मोहल्ला छोड़ दिया... हम ऐसी जगह आकर रहे.. जहां अब नाम प्रीति, सुरेश.. राजन और जोशी होने लगे। तब भी समझ नहीं आया कि यहां किसी का नाम अतीक क्यूं नहीं है। जहां रह रहे थे... वहां लंबे समय तक कोई दुकान नहीं जली। कुछ दिनों बाद सुना कि पुराना मोहल्ला खाली हो गया है। अब वहां कोई नहीं रहता। सारे खेल छूट गए.. अब मैदान नहीं केवल छत है.. जहां पर खड़े होकर .. आज भी पुराने मोहल्ले का मैदान दिखाई देता है। मैं बड़ी हो गई.. बचपन पीछे छूटने लगा.. लोगों ने मुझे बता दिया.. कि मैं कौन हूं... और वो कौन थे। हममें अंतर क्या है। अब मन सोचता है कि जिसने भी ये नारा दिया.. "मेरा भारत महान".. वो "हमारा" लगाना क्यूं भूल गया। सबने देश को अपने-अपने हिस्से के हिसाब से बांट लिया। किसी ने धर्म पर कब्ज़ा किया.. तो किसी ने ज़मीन के टुकड़े पर.. कोई मोहल्ला किसी धर्म के नाम हो गया। इन सब ने "मेरा" और "भारत" शब्द का मतलब तो समझा दिया। लेकिन अब "महान" कान में सीसे की तरह चुभता है। किस महानता पर गुरूर करूं। अपने भारतवासी होने पर, हिंदू होने पर या मुसलमान होने पर। महानता तो किसी में भी नज़र नहीं आती।

3 comments:

Soumyadip said...

The problem is how do we define greatness? each individual would have his/her own criterion. In mine, Hamara Bharat Mahaan (as you rightly pointed out) because we survived (didn't flourish though) when at the time of our modern birth no one really thought that we could come this far, in one piece.

The blemishes of communalism unfortunately doesn't have any No Marks which can promise their erasure. Only uninspiring textbook lessons on secularism and national integrity. We talk of national integrity, while no one cares a hoot for personal integrity, leave alone make efforts towards building it. The Bharat also has to be mahaan inside.

Kaukab said...

mazaq nahi kar raha hoon...agar aap samne hoteen to pair pakad leta aapke. yaar aisey sochne aur mehsoos karney waley log ab bhi hotey hain kya? kaheen main hii to neend mein nahi likh raha ye sab?

chalte chalte said...

छोटी-छोटी चीजों हैं पर उसके बड़े-बड़े मायने हैं।
डायरी की बाते ठीक है पर अलग भी तो एक दुनिया है.