Friday, February 16, 2007

सहम गया बचपन

बड़े-बड़े शहर और इनके बीच तंगदिल लोग,लोगों की फितरत की तरह ही सकरीं गलियां,जहां आना-जाना हमेशा से एक सवाल लगता है। इन्हीं तंग गलियों के बीच रहती हूं मै। हालांकि घर अपना नहीं लेकिन जो किराया देती हूं,वो अपनी ही कमाई है।
मेरा घर औरों से कुछ अलग है। अलग इस तरह कि घर के सामने सूरज को आराम करने की जगह मिलती है। सामने कुछ खुली जगह है। बागीचा या वरांदा नहीं, एक खाली प्लॉट है,जिस पर एक बड़ा सा लोहे का दरवाज़ा लगा है। ये जगह कॉलोनी के बच्चों के लिए खेल का मैदान है। उनके शोर-गुल का मुझपर असर पड़ता है या नही ये वो सोचते नहीं,हां निश्चिंत इस बात से हैं कि खाली प्लॉट के सामने कितनी ही मस्ती करें...वो डॉंटेगा नहीं। मेरे अकेलेपन में कई बार इन बच्चों की शैतानियां मुझे मेरा बचपन याद करा जाती हैं। और कई बार मुझे डिस्प्रिन का सहारा लेना पड़ता है।

बहुत बड़े-बड़े मैदान होते हैं हमारे छोटे शहरों में लेकिन इन बच्चों की किस्मत में शायद ये सब नहीं। खैर,एक दिन यूं ही चाय का कप लेकर मैं नींद भरी नज़रों से उन बच्चों में अपने बचपन की शैतानियां देख गुदगुदा रही थी,कि अचानक मेरी नज़र उस लोहे के दरवाज़े पर पड़ी..जो इन नन्हें शैतानों का ड्राइंग बोर्ड है। आड़े-तेड़े,तिरछे चित,कभी अंक...जोड़-घटाव तो कभी यूं ही कुछ भी।
इन सब के बीच मेरी नज़र उस बच्ची पर पड़ी जो महज़ 11 या 12 साल ही होगी। उसने कुछ लिखा और जल्दी से मिटा दिया,फिर दौड़ गई। मेरी नज़र उस मिटे हुए अक्षरों को जोड़ने में जुट गई। मैनें ध्यान से देखा और एकाएक सांस रूक सी गई। दरवाज़े पर लिखा वो शब्द मुझे अंदर तक कचोट गया। उस बच्ची ने बोर्ड पर लिखा था NITHARI, एक पल में ऐसा लगा मानो उनका बचपन वहीं खो गया। क्या उसे पता है निठारी में क्या हुआ? क्या यही वजह है कि वो तंग गलियों में अपनी खुशी ढूंढ रही है? खुले और बड़े मैदान उसे डराते हैं।

1 comment:

Dev said...

bahut badhiya varsha ji