Thursday, February 1, 2007

फरवरी की हल्की धूप

फरवरी की हल्की धूप...कई दिनों बाद देख रही हूं...अक्सर ये नज़ारा मैं देख ही नहीं पाती हूं... मॉर्निंग शिफ्ट जो रहती है...सुबह सूरज उगने से पहले हम एयरकंडीशन कमरे में कैद हो जाते हैं..जहां ठंड तो होती है लेकिन उसमें सूरज की गरमाहट आने का एहसास नहीं होता..

बचपन में अक्सर यूं ही खिड़की पर बैठकर मैं धूप को अपने हथेली में पकड़ने की कोशिश किया करती थी... अपनी छोटी सी हथेली में जब भी धूप को बांधने की कोशिश करती तो लगता, जैसे दुनिया को खुद में समेट लिया है...मां हमेशा कहती...धूप को कभी कोई नहीं पकड़ पाया..लेकिन शायद मेरा बाल हठ देखकर वो भी खामोश हो जाती। मुझे लगता काश मेरे पास पुष्पक विमान होता और मैं झट उसमें बैठकर सूरज के पास जाती और उम्र भर के लिए उनसे कुछ धूप मांग लेती..उन्हें अपने पास एक सुनहरे पिंजरे में रखती..सोचती थी पिंजरा तो सफेद ही होता है लेकिन जब धूप उसमें रखूंगी तो वो खुद ब खुद सुनहरा हो जाएगा।

आज भी उस धूप को पकड़ने की कोशिश करती रहती हूं। इन्हीं किरणों की तरह चाहती हूं...जहां चाहूं वहां जाऊं....मुझे कोई कुछ करने से रोक न पाए...लेकिन अचानक मां की बात याद आ जाती है...और मैं संभल जाती हूं....सूरज को भी ग्रहण लगता है...तब उसकी किरणें, ये धूप कहीं नज़र नहीं आती।

3 comments:

तेज नारायण said...

लेखिका की इस कोशिश में बचपन की मासूमियत और सपनों का पीछा करने की ललक झलकती है... गुनगुनी धूप को अंजुली में समेटने की चाहत असल में ज़िंदगी को भरपूर जीने की ख्वाहिश लगती है...

Soumyadip said...

Welcome to the world of blogging. I know you will relish it.

lubna said...

feb main ab wo halki dhoop bachi hi kahna hain...... blame it on global warming.... ab to feb main may ka maza aa raha hai baqi rahi doop ko mudhhi main pakadne ki baat to babu lage raho....... kiyunki aek din wo bhi tha jab insan udna chahta tha to air plane banaya..... telephone banaya television banaya pata nahi shayad tum bhi kuch bana hi lo.......