Wednesday, August 27, 2008

लम्हों के दायरे

सिमटते लम्हों के बीच सांस ले रही है ज़िंदगी। सांस का हर टुकड़ा पहले थोड़ा सोचता है कि क्या अपना पूरा हिस्सा ले लूं ? कहीं ये दूसरे के लिए कम तो नहीं पड़ जाएगा? दूसरे को आसरा दूं । लेकिन वो खुद भूल रहा है कि वो आसरा दे रहा है या खुद उसके सहारे का मोहताज़ हो रहा है। इस बेखयाली में वो बस जी रहा है, ये सोचकर कि वो भी किसी के तो काम का है, उसके होने से किसी को तो कोई फर्क पड़ता है। सोचकर खुश हो लेता है। लम्हों से नाराज़गी भी अब उसे नहीं सताती। वो समझ चुका है कि हर पल जो बीत रहा है, वो लम्हों की भी मजबूरी है। पर वो जी रहा है...मन में हर दिन नई उम्मीद के साथ। लेकिन अचानक उसे एहसास होने लगा, जिसके लिए वो अपना सबकुछ दे रहा है, वो कभी कुछ लेना चाहता ही नहीं था। देने के पीछे भी उसी का स्वार्थ था। लेने वाला इसे अपनी किस्मत समझ रहा है,वो गलत भी तो नहीं है। सच ,उसकी किस्मत में लिखा था बेफिक्र जीना.. फिर वो ही सही.. जितने दिन वो साथ रहे, वो एक अकेले की मिल्कियत तो नहीं थे। दोनों ने अपने-अपने तरीके से जीवन जीने की लड़ाई लड़ी। एक ने अपनी दुनिया अलग बसा ली.. तो दूसरा उसी दुनिया में खो कर रह गया। गलत कोई नहीं...अब भी जीने की पूरी उम्मीद है उसे, लेकिन घटता दायरा दम घोंट रहा है।

Sunday, June 29, 2008

किसी की मजबूरी, किसी का मजा

आरूषि-हेमराज हत्याकांड पर मीडिया ने जो कुछ किया, अब उसे वाह-वाही दे या कोसें समझ से परे है। कुछ मीडियाकर्मी कॉलर ऊंची कर रहे हैं कि हमने पुलिस का ध्यान इस ओर दिलाया लेकिन नतीजा क्या है,सामने है। चलिए इस बहस से अगल एक दूसरी ख़बर की ओर ध्यान देते हैं। ये घटना है मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर की। जबलपुर को शायद लोग भेड़ाघाट की वजह से पहचानें, जहां संगमरमर की चट्टाने हैं। इस शहर में एक मीडियाकर्मी ने एक बुजुर्ग आदमी और महिला के सामने लोकलाज की चट्टान खड़ी कर दी। ज्यादा घुमा-फिराने से अच्छा है सीधी बात कही जाए। तो साहब वाकया कुछ ऐसा है कि एक कर्तव्ययोगी मीडियामैन घूमता हुआ कोर्ट पहुंचा, जहां उसे पता चला कि 84 साल के व्यक्ति ने अपनी 54 साल की विधवा बेटी से शादी कर ली। यकीनन ये आम बात नहीं और जब आम नहीं तो न्यूज़ तो है ही। उन्होंने पूरा पता लगाया और पहुंच गए कैमरा लेकर उस इलाके में जहां ये दोनो रहते थे। कोशिश की, कि पड़ोसी कुछ बताएं,पड़ोसियों ने कहा हम तो यही जानते हैं कि दोनों बाप-बेटी हैं, शादी कब कर ली हमें नहीं पता। उनके घर को अपने बाप का घर समझ कर मीडियामैन घुस गया अंदर. तमाम सवाल दाग दिए क्यूं किया ऐसा घिनौना कृत्य, क्या आपको लाज नहीं आई, समाज क्या कहेगा आपको.. वगैरह वगैरह। बुजुर्ग व्यक्ति ने बड़े इत्मीनान से कहा कि पहले तो ये मेरी बेटी नहीं, बेसहारा थी तो मेरे साथ रहने लगी..इसका आगे-पीछे कोई नहीं। मैं बिस्तर में बीमार पड़ा हूं..कब यमराज बुला लें, फिर कौन करेगा इसका पालन-पोषण अब संतुष्टी है कम से कम अब मेरे बाद इसे पेंशन तो मिलेगी। लेकिन भई मीडिया के ऊपर तो समाज की ज़िम्मेदारी है,कल तक जो बातें चार दीवारी में थीं उसके विजुअल्स पूरे शहर में फैल गए, चैनल ने बड़ी ख़बर मानकर खूब चलाया। जो मोहल्लेवाले कल तक झुककर नमस्ते कर रहे थे,आज थूक रहे हैं। लेकिन चैनल को क्या उसने तो आधे घंटे की टीआरपी बटोर ली। जो लोग उन्हें धिक्कार रहे हैं क्या उन्होंने एक बार भी सोचा कि अगर उन्हें अवैध संबंध बनाने ही होते तो कोर्ट के सर्टिफिकेट की क्या ज़रुरत थी, क्या जो बाप अपनी बेटियों से बलात्कार करते हैं वो बाद में कोर्ट का सर्टिफिकेट लेते हैं, या जो बहुए अपने ससुर,जेठ या देवर की हवस का शिकार बनती हैं उन्हें सर्टिफिकेट दिया जाता है। सब जानने के बाद भी ये क्यूं नहीं सोचना चाहते ही उम्र के जिस पड़ाव में वो दोनों हैं वहां शरीर की नहीं पेट की भूख ज्यादा मायने रखती है। एक पिता ने सोचा वो अपनी बेटी का भविष्य सुरक्षित कर जाए लेकिन उसकी तुलना उन बापों से कर दी गई,जिन्होंने अपनी बेटियों का जीवन नर्क कर दिया। वाह रे हमारी सोच, सच है सही-गलत आज मीडिया की नज़रों से लोग देखने लगे हैं।

Wednesday, January 16, 2008

बीस रुपये का टिकट

दिल्ली का अक्षरधाम मंदिर। विशाल परिसर में फैले इस मंदिर को विश्व में सबसे बड़ा हिंदू मंदिर होने के ख़िताब से नवाज़ा गया। सालों से सोच रहे थे कि घर में कोई बड़ा आए तो मंदिर देखने जाएं। मौका मिला और हाल में हम अक्षरधाम मंदिर घूम आए। घूम आए इसलिए कह रहे हैं क्यूंकि बार-बार दिल को समझाने के बाद भी वो महसूस नहीं कर सका कि हम मंदिर में आए हैं। भगवान के चरणों में, जो श्रद्धा मन में आनी चाहिए वो तमाम कोशिशों के बावजूद पैदा नहीं कर पाए। प्रसाद चढ़ाया नहीं, उसकी रसीद मिल गई। नारियल फोड़ा नहीं, फूल चढ़ाए नहीं, न ही धूप या अगरबत्ती लगाई, विश्वास ही नहीं हुआ कि मंदिर इन चीज़ों के बिना भी हो सकता है।

खैर, हमें तो उतनी आपत्ति नहीं हुई..लेकिन हमारी माताजी का मन नहीं माना और उन्होंने पंडित से पूछ ही लिया कि आखिर घर लौटकर क्या प्रसाद देंगे पड़ोसियों को? पंडित ने उन्हें 51 रुपये की एक पर्ची थमाई,कहा काउंटर से प्रसाद ले लीजिएगा। काउंटर पर एक अच्छी सी डिब्बी में दो मिठाई मिल गई। एहसास हो गया कि भले ही पहले प्रसाद के नाम पर हमने खूब लड्डू उड़ाए हों,लेकिन यहां प्रसाद,प्रसाद की तरह ही खाना होगा।

खैर!मंदिर, मंदिर जैसा क्यूं नहीं लग रहा? ये चोट मेरे परिवार की थी। मेरे दिल को जो दुखा गया वो था जल,जीवन और ज्योति का मिलन। जी हां, जिसे देखने के लिए 20 रुपये का टिकट लेना होता है। ठीक शाम 6.30 मिनट पर हम उस जगह पहुंच गए। सबने अपनी-अपनी सीट पकड़ ली। और थोड़ी देर बाद, एक छोटे से भाषण के बाद शुरू हुआ, लाइटिंग फव्वारे का शो। जो संगीत की धुन पर थिरका। स्वचीज़े पर बैठने वाले के हुनर की तारीफ करनी होगी, लाइट्स और पानी का अच्छा मेल किया। उनके मुताबिक शो में जीवन की शुरूआत और मोक्ष का स्वरूप बताया गया। शो ख़त्म हुआ, सबने तारीफ की, बीच-बीच में तालियां भी पींटी। लेकिन इन सब ने मेरा गुस्सा और बढ़ा दिया।

मन में बस एक ही सवाल आया, ये सैकड़ों-हज़ारों लोग 15 मिनट के इस शो के लिए, जो मेरे नज़रिए से कुछ खास भी नहीं था...20 रुपये आराम से दे सकते हैं,तो फिर क्या वजह है कि नाटक या थियेटर सूने पड़ गए हैं।

वहां तो संगीत, नृत्य, अभिनय, सब कुछ वास्तविक होता है। न केवल वास्तविक, बल्कि बदलता भी रहता है। उसमें संगीत के कई रंग होते हैं। हर विधा के रंगों से सजता है नाटक। लेकिन उसे पसंद नहीं किया जाता। अधिकतर लोग पास की जुगाड़ में रहते हैं, टिकट मुफ्त हो तो और अच्छा है,20 रुपये का टिकट भारी पड़ता है। क्यूं?

फिल्म से थियेटर का कोई मुकाबला नहीं, ये बात मान ली। होना भी नहीं चाहिए। लेकिन इस तरह के शो देखने जब लोग हज़ारों की संख्या में जुट सकते हैं तो एक कला को बढ़ावा क्यूं नहीं दे सकते।

दिल्ली में भारत रंग मंडल का महोत्सव हुआ, लेकिन तमाम खबरिया चैनल में उसकी कितनी रिपोर्ट्स आईं,सबको पता है।नया साल पहले ज्योतिष, फिर नंबर और फिर टेरो कार्ड से दिखाना वो नहीं भूल रहे।शनि कब भारी पड़ेगा, ये बता-बता कर काले कपड़े बिकवा डाले और ज्योतिषों की घर बैठे कमाई बढ़ गई। लेकिन एक-दो चैनल को छोड़ दें, तो किसी ने रंग मंडल के रंगों को अपने स्क्रीन पर नहीं बिखेरा।

इसी बात से एक दिलचस्प वाकया सुनिए। मेट्रो शहरों में 24 घंटे काम का कल्चर है। हमने अपने बॉस से छुट्टी मांगी, जो पता थी मंजूर नहीं होगी। फिर हमने कहा कि हमें सुबह की शिफ्ट दे दी जाए। वजह पूछी गई, हमने सच-सच बता दिया कि थियेटर देखने जाना है। बस फिर क्या था, वो पहले तो मुस्कुराए, फिर हमारी ओर देखकर हंसे और उन्होंने हमें बेवकूफ कहने से भी परहेज नहीं किया। बोल, इस काम के लिए भी भला शिफ्ट बदली जाती है। हम अपना सा मुंह लेकर रह गए। बहुत गुस्सा आया, लेकिन क्या कर सकते थे, इतना ही नहीं, हमारी इस बात का ज़िक्र कर, हम पर हंस कर, कई लोगों ने अपना खून बढ़ाया। लोगों को भले ही ये मज़ाक लगे, लेकिन इसका दर्द दिल में लेकर हम रह गए। जब अक्षरधाम मंदिर में फव्वारों के इर्द-गिर्द बैठी उस भीड़ को देखा, तो अचानक वो टीस फिर से कौंध गई।

Sunday, November 18, 2007

ख़त आया है

ख़त आया है।

कोई लिफ़ाफा नहीं। कोई अंतरदेसी नहीं..न ही कोई पोस्टकार्ड

ई-मेल भी नहीं।

ख़त आया है।

आसमां में सात तिरछी रेखाओं की स्याही से इसे लिखा है

बादल भी उसे रंग देने के लिए कुछ सांवले पड़ गए

धरती ने मुस्कुराना शुरू कर दिया,

जब बूंद-बूंद अक्षर पढ़ना शुरू किया

खुशी से झूम उठी वो,

अंग-अंग मस्ती में भिगो गया...

वो बांवरा...ख़त

इठलाता सपना

दे गया।

Wednesday, November 14, 2007

पानी से आसमां का मिलन

पिछले दिनों मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल जाना हुआ। मैनें यहां करीब पांच साल बिताए। पुरानी यादें ताज़ा हो गईं। यूं तो भोपाल बहुत खूबसूरत शहर है। वहां का दो तालाब हैं। एक बड़ा तालाब, जिसे लोग लेक व्यू के नाम से जानते हैं। यहां बहुत भीड़ होती है। दूसरा शाहपुरा, छोटा तालाब। ये छोटा है, यहां ज्यादा भीड़ नहीं होती। मुझे ये बेहद पसंद है। ये गवाह है मेरी हर छोटी-बड़ी खुशी, छोटे-बड़े दुख का। जब भी मन बहुत खुश हुआ या बहुत उदास, इसी से आकार बांटा। इतने साल बाद जब इसे देखा तो लगा पुराने दिनों में लौट गए।
किसी ने सच कहा है यादें हमेशा तकलीफ देती हैं। अच्छी हों तो उनके अब न होने का ग़म। बुरी हों तो भी भारी मन। लेकिन इनके बिना जिया भी तो नहीं जा सकता।






Thursday, August 16, 2007

क्या मां निभाएगी ज़िम्मेदारी?

मृत्युदंड, प्रकाश झा की फिल्म। हालांकि काफी पुरानी फिल्म है लेकिन फिल्म का जो विषय है, वो कभी पुराना लगता ही नहीं। औरत पर अत्याचार। बिलासपुर के एक गांव की कहानी कही है इसमें। बिलासपुर, छत्तीसगढ़ का एक ज़िला। पिछले दिनों कहीं पढ़ा मध्यप्रदेश, जो कि छत्तीसगढ़ का पड़ोसी या ये कहें बड़ा भाई है। उसमें हर एक घंटे में एक लड़की से बलात्कार होता है और हर रोज़ एक लड़की सामुहिक बलात्कार की शिकार होती है। आंकड़े यकीनन चौंकाने वाले हैं। दिल दहल गया। जब दिल्ली में बलात्कार की कोई ख़बर आती है, तो तमाम हेडलाइन बन जाती हैं, दहली दिल्ली, दिल्ली में बलात्कार, वगैरह-वगैरह, लेकिन पूरे देश में औरतों की हालत कितनी ख़राब है ये इन ऑंकड़ों से साबित होता है। ये तो केवल एक राज्य की कहानी है, वो भी सरकारी दस्तावेज़ों में, और अनुभव कहता है कि सरकारी आंकड़ों को दो या तीन गुना मानकर, सच्चाई मानी जानी चाहिए, तब तो दिल रूआंसा हो जाता है। क्या हालत है हमारी आधी आबादी की।

भोपाल में मध्यप्रदेश के अनुपूपुर ज़िले की एक लड़की आई, राज्यपाल से यह कहने की मुझसे टीआई ने पांच पुलिसवालों के साथ मिलकर..बलात्कार करने की कोशिश की। जान निकल रही थी.. उसकी जब वो ये बातें सोचकर मीडिया को बता रही थी। सच, गुस्सा आता है, अपने समाज पर। जब ये बातें किसी से करो तो अकसर ये कहकर चुप करा दिया जाता है कि महिलावादी भाषण बंद करो। अरे, हम चुप हो जाएं.. लेकिन आदमी अपनी हरकतों से बाज न आए, ये कहां तक सही है।

दिन में शायद ही ऐसा कोई वक्त होगा..जब हम ये ख्याल किए बिना जी पाएं कि हम लड़की हैं,इसलिए हमें संभल कर रहना चाहिए। बस स्टाप पर खड़े होते हैं... तो कुछ रईसज़ादे कार में बैठकर...अंदर से गंदे इशारे करते हैं.. कभी-कभी उठा लेने की धमकियां देते हैं, उनके लिए शायद ये एक टाइमपास खेल हैं, उनकी मर्दानगी साबित हो गई और उन्होंने कुछ किए ही लड़की को सहमा दिया। लेकिन इस दौरान हमारे दिल पर क्या गुज़र गई.. कोई शायद नहीं समझ सकता। कितनी बातें हैं जो यूं ही सहन कर जाते हैं हम.. कभी कभी तो लगता है कि शोषण भी दिनचर्या का एक हिस्सा हो गया है। बस में कोई जानबूझकर धक्का मारे तो हम उसे नज़रअंदाज कर देते हैं, खुद पर गुस्सा आता है लेकिन सह जाते हैं। इस तरह की कितनी ही बातें हैं, जो सहने वाले भी जानते हैं और करने वाले भी। लेकिन ज़िंदगी चल रही है।

औरत तो बहुत बाद की चीज़ हैं, मां,बहन, बेटी किसी को कोई नहीं बख्शता। जो इसे किसकी गलती मानेंगे? क्यूं नहीं रोका जा सकता ये सब। क्या मां अपने बेटे को कभी समझाती है कि उसकी एक फब्ती भी किसी को कितना डरा सकती है। क्यूं नहीं ये ज़िम्मेदारी घरवाले निभाते, कि बचपन से अपने बच्चों को समझाएं कि औरत की इज़्जत करना भी उसकी ज़िम्मेदारी है। मृत्युदंड का आखिरी डॉयलॉग यही कहता है। जब छोटी बहु कहती है. कि मैं अपने बच्चे को स्नेह से पालूंगी, उसे सिखाऊंगी कि अन्याय कभी करना नहीं, और अन्याय कभी सहना नहीं। क्या ये सीख हर मां अपने बच्चे को देती है? अगर दे तो शायद बलात्कार की आंकड़े कुछ कम ज़रूर हो सकते हैं।

Monday, June 11, 2007

डायरी के कुछ पन्नों से...

मैंने इस देश में जन्म लिया. बहुत वक्त तक समझी नहीं कि क्या मतलब है यहां रहने का,किताबों में पढ़ा मेरा देश महान। समझ में नहीं आया बस मान लिया। धीरे-धीरे इसका इतिहास पढ़ा,धर्म के बारे में जाना। जाना कि बचपन जिन लोगों के बीच बिताया,वो हमसे अलग थे। क्या केवल इसलिए क्योंकि वो मुसलमान थे। उनके घर खाना खाते, खेलते कूदते वक्त कभी इस बात का एहसास नहीं हुआ.. अतीत के आईने में झाकूं तो पहला दोस्त मेरा अतीक था। आसिफ, अफ़ज़ल और मुन्नी। उस वक्त तो लगता ही नहीं था.. उनके नाम ऐसे क्यूं हैं... मुझ जैसे या मेरे भाई-बहनों की तरह क्यूं नहीं.. मुझे उसका मतलब क्यूं पूछना पड़ता है। इतना सोचा ही नहीं। मैदान में जब साइकिल चलाते वक्त आसिफ ने मुझे ढोकर मारी तो मुझे उस पर गुस्सा आया.. लेकिन जब उसने गिल्ली-डंडा में अपना पार्टनर बनाया.. तो सारा गुस्सा छू हो गया। जिस मोहल्ले में रहते थे.. याद है एक वक्त वहां आग लगी थी... लगी थी या लगई गई.. कुछ याद नहीं.. उसमें मुन्ना भाई की वो स्कूलट भी जल गई... जो आंख में गुल्ली की चोट लगने पर मुझे अस्पताल ले कर गई थी। किसने जलाई क्यूं जलाई कुछ समझ नहीं आया। कुछ दिनों बाद सब ठीक हो गया, हम बच्चे फिर बिजली गुल होने का इंतज़ार करने लगे.. ताकि आंखमिचौली खेल सकें।आज भी वो दिन मेरी ज़िंदगी के सबसे खुशनुमा दिनों में से हैं। जिन्हें भुलाना, खुद को भुलाने जैसा होगा। कुछ वक्त बाद हमने मोहल्ला छोड़ दिया... हम ऐसी जगह आकर रहे.. जहां अब नाम प्रीति, सुरेश.. राजन और जोशी होने लगे। तब भी समझ नहीं आया कि यहां किसी का नाम अतीक क्यूं नहीं है। जहां रह रहे थे... वहां लंबे समय तक कोई दुकान नहीं जली। कुछ दिनों बाद सुना कि पुराना मोहल्ला खाली हो गया है। अब वहां कोई नहीं रहता। सारे खेल छूट गए.. अब मैदान नहीं केवल छत है.. जहां पर खड़े होकर .. आज भी पुराने मोहल्ले का मैदान दिखाई देता है। मैं बड़ी हो गई.. बचपन पीछे छूटने लगा.. लोगों ने मुझे बता दिया.. कि मैं कौन हूं... और वो कौन थे। हममें अंतर क्या है। अब मन सोचता है कि जिसने भी ये नारा दिया.. "मेरा भारत महान".. वो "हमारा" लगाना क्यूं भूल गया। सबने देश को अपने-अपने हिस्से के हिसाब से बांट लिया। किसी ने धर्म पर कब्ज़ा किया.. तो किसी ने ज़मीन के टुकड़े पर.. कोई मोहल्ला किसी धर्म के नाम हो गया। इन सब ने "मेरा" और "भारत" शब्द का मतलब तो समझा दिया। लेकिन अब "महान" कान में सीसे की तरह चुभता है। किस महानता पर गुरूर करूं। अपने भारतवासी होने पर, हिंदू होने पर या मुसलमान होने पर। महानता तो किसी में भी नज़र नहीं आती।

Tuesday, June 5, 2007

सफेद रंग की स्याही

सफेद, ऐसा रंग जिस पर जो भी रंग चढ़ाओ चढ़ जाता है। उसे सजाता है,संवारता है, सुंदर बनता है। जिसने जैसा चाहा, लोगों ने उसका अपनी तरह इस्तेमाल किया। कभी उस पर दूसरा रंग चढ़ा दिया तो कभी दूसरे रंग के साथ मिलाकर नया रंग बना दिया । अपनी पहचान बनाए रखने की जिद कभी नहीं की उसने। किसी को नई ज़िंदगी दी, किसी के प्यार में अपनी ज़िंदगी लुटा दी।
ज़िंदगी तो जी रहा था वो लेकिन ऐसी जिंदगी जिसमें केवल सांसो का आना-जाना ही जारी था..धड़कन की गूंज तक नहीं। पता नहीं किस कोने में कुछ दबी हुई उम्मीदें ज़िंदा रखे हुएं थी उसे।
वो सफेद रंग, प्रतीक है शांति का, सद्भाव का, पवित्रता का। लेकिन खुद उसके जीवन में शांति कहां? सब रंगों को सहारा दिया उसने लेकिन खुद पर सफेद रंग न चढ़ा सका। शिकवा करे किससे, शिकायत भी नहीं करता वो। रंगों की महफिल में खो जाता है अक्सर । उसमें ऐसा गुम हो जाता है कि खुद को भुला बैठता है।
बस खुशी है तो इस बात की... कि इन सब के बावजूद उसे कोई खतरा नहीं। खुशी में लोग भले ही भुला दें उसे.. गम हमेशा उसे याद करता है। जब-जब ज़ीवन की तड़क-भड़क मन को बोझिल कर देती है,मन उसी सफेदी की ओर भागता है और शायद यहीं उसकी उम्मीदें धड़कनों को सुकून पहुंचा रही थीं।

Sunday, April 15, 2007

हौसले को सलाम


भेजा फ्राय, बहुत दिनों बाद एक ऐसी फिल्म देखी जिसमें मन को हंसाने के लिए मजबूर नहीं करना पड़ा। जो हंसने के शौकीन हैं और जॉनी लीवर या चैनल पर हंसी के नाम पर आ रही नौटंकी से बोर हो गए हैं, उनके लिए ये फिल्म एक रियल मसाला है। फिल्म का सुरूर कुछ उतरने के बाद जब उसकी कास्ट के बारे में सोचा तो अचानक ध्यान सारिका के ऊपर गया। वो सारिका जिसने रजत पटल पर पिछले कुछ महीनों में ऐसी एंट्री की है..जो शायद अपने पुराने वक्त में नहीं कर पाईं। पहले परजानिया फिर भेजा फ्राय। दोनों ही फिल्मों में उनके अभिनय की तारीफ की गई है। सारिका उन तारिकाओं में से हैं जिन्होंने बचपन से लेकर अब तक कई किरदार निभाए हैं। बचपन में उनकी भूमिकाएं सराही गईं कभी लड़का बनी कभी लड़की। लेकिन जब लीड रोड में आईं तब तक हमारी इंडस्ट्री का वो दौर चल रहा था.. जहां हिंदी सिनेमा भटका सा लगता था। उस दौर में उनकी पहचान मेरे लिए न के बाराबर है। दूसरी बार मुझे चर्चाओं में वो तब याद आईं जब उन्होंने कमल हसन से शादी के बाद अपना सिर मुंडाया। अफवाहें ये रहीं कि कमल हसन की सफलता के लिए उन्होंने ऐसा किया है.. हकीकत पता नहीं। उसके बाद पता चला कि कमल और सारिका का तलाक हो गया है। वो खो सी गईं..लेकिन जब लौंटी तो उसी विश्वास बल्कि ये कहें पहले से ज्यादा विश्वास के साथ।

कुछ इसी से मिलती जुलती कहानी अमृता सिंह की भी है। वो अमृता सिंह जो अपने फिल्मी करियर से ज़्यादा चर्चाओं में इसलिए रहीं.. क्योंकि उन्होंने अपने से छोटी उम्र के सैफ अली खान से शादी की। शादी के बाद अमृता ने बड़े पर्दे से विदाई ले ली। दो बच्चों और परिवार में अमृता ऐसी गुम हो गईं..कि कभी ख़बरों में नहीं रहीं। मीडिया का उन पर ध्यान गया तो तब जब सफल अभिनेता बनते ही सैफ की नई गर्लफेंड रोसा का जिक्र हुआ... और अमृता से सैफ का तलाक हो गया। अमृता फिर फिल्मों में आईं.. और कलयुग फिल्म में खलनायिका बन कर। उन्होंने छोटे पर्दे पर भी काम किया। सुना तो ये भी है कि एकता कैंप उन्हें अपने नए सीरियल के लिए साइन करने के लिए दिन रात एक किए हुए है। परिवार से टूटने के बाद अमृता फिर अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं। पूजा बेदी के एक इंटरव्यू में अमृता ने बड़ी बेबाकी से कहा था कि अब वो जानती हैं कि यंग नहीं हैं.. काफी समय से काम छोड़ा है..इसलिए काम मिलने में दिक्कत होगी.. लेकिन वो हारी नहीं हैं।

दोनों ही मामलों में सारिका और अमृता दोनों ने साबित किया, कि परिवार के लिए उन्होंने अपना सबकुछ छोड़ ज़रूर दिया था.. लेकिन इस बीच उन्होंने खुद को संभाले रखा। और वही हिम्मत आज उनकी सफलता की निशानी है।

ऐसे विश्वास और हौसले को सलाम।

Friday, March 2, 2007

पांचवी हेडलाइन

हेडलाइन यानि सुर्खियां, वो ख़बरें जो सबसे महत्वपूर्ण हैं। प्रिंट हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, हेडलाइन ..मार्केट दिलाती हैं, प्रतियोगिता कराती हैं, टीआरपी सेट करती हैं। गौर करें तो पांच या छह ही मुख्य ख़बरों को उनमें जगह मिलती है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने तो इसका दायरा पांच का सीमित कर दिया है। शुरू की चार हेडलाइन तक तो कोई दिक्कत नहीं....ये अक्सर सभी की एक जैसी ही होती हैं। अंतर पैदा करती है पांचवी हेडलाइन।
प्रिंट की बॉटम स्टोरी और इलेक्ट्रॉनिक की आखिरी हेडलाइन। भले ही ये पेज का आखिरी हिस्सा कवर करे या आखिरी नंबर पर हो लेकिन इसे जुटाने में बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं। वैसे मान्यता है कि ये हेडलाइन कोई सॉफ्ट स्टोरी होती है। सॉफ्ट से यानि रूई की तरह नहीं.. ह्यूमन स्टोरी...फीचर या इसी से जुड़ी कोई ख़बर। वो हिस्सा जहां ख़बर से ज़्यादा भावनाएं स्थापित की जा सकें।फिर भावनाओं को भुनाना हिंदुस्तान की पुरानी आदत है। इस पर बना कोई भी सामना खूब बिकता है।
कभी तो ये बहुत आसान होती है तो कभी बहुत मुश्किल। इनमें या तो उन स्टोरीज़ को शामिल करें जो चैनल की विशेष उपलब्धि हो यानि इस मामले में मेहनत ज़्यादा है। आसान इस संदर्भ में कि वेलेंटाइन डे,किस डे, दशहरा या दीवाली इसे आसान बना देते हैं। आजकल तो नायक,. महानायकों के जन्मदिन ...इस पर छाए रहते हैं। डे स्पेशल होना...टीवी वालों के लिए राहत देता है। लता का जन्मदिन, आशा का जन्मदिन, महानायक अमिताभ बच्चन का जन्मदिन....भगवान इनकी उम्र लंबी रखे कोई और दे न दे...टीवी वालों के मन से ये दुआ ज़रूर निकलती होगी। बर्थडे आया नहीं कि बन गई टीम और सब जुट गए दुआएं जुटाने में। केवल जन्मदिन ही नहीं ड्राइ दिनों में तो मरण दिन भी याद आ ही जाता है। ड्राइ दिन यानि जब कोई मुद्दा खेला न जा सके। ये टीवी की भाषा है, जो भले ही बुरी लगे लेकिन अपनाई जाने लगी है। मुद्दे पर लौटते हैं,किशोर की पुण्यतिथि, इंदिरा या नेहरू की पुण्यतिथि....ड्राइ दिनों में डूबते को तिनके के सहारा के समान हैं। हर साल की मेहनत छोड़िए पिछले साल का archive निकालिए....कुछ जोड़िए कुछ घटाइए....और बना डालिए नये पैकेज,आपकी पांचवी हेडलाइन तैयार है।