Wednesday, January 16, 2008

बीस रुपये का टिकट

दिल्ली का अक्षरधाम मंदिर। विशाल परिसर में फैले इस मंदिर को विश्व में सबसे बड़ा हिंदू मंदिर होने के ख़िताब से नवाज़ा गया। सालों से सोच रहे थे कि घर में कोई बड़ा आए तो मंदिर देखने जाएं। मौका मिला और हाल में हम अक्षरधाम मंदिर घूम आए। घूम आए इसलिए कह रहे हैं क्यूंकि बार-बार दिल को समझाने के बाद भी वो महसूस नहीं कर सका कि हम मंदिर में आए हैं। भगवान के चरणों में, जो श्रद्धा मन में आनी चाहिए वो तमाम कोशिशों के बावजूद पैदा नहीं कर पाए। प्रसाद चढ़ाया नहीं, उसकी रसीद मिल गई। नारियल फोड़ा नहीं, फूल चढ़ाए नहीं, न ही धूप या अगरबत्ती लगाई, विश्वास ही नहीं हुआ कि मंदिर इन चीज़ों के बिना भी हो सकता है।

खैर, हमें तो उतनी आपत्ति नहीं हुई..लेकिन हमारी माताजी का मन नहीं माना और उन्होंने पंडित से पूछ ही लिया कि आखिर घर लौटकर क्या प्रसाद देंगे पड़ोसियों को? पंडित ने उन्हें 51 रुपये की एक पर्ची थमाई,कहा काउंटर से प्रसाद ले लीजिएगा। काउंटर पर एक अच्छी सी डिब्बी में दो मिठाई मिल गई। एहसास हो गया कि भले ही पहले प्रसाद के नाम पर हमने खूब लड्डू उड़ाए हों,लेकिन यहां प्रसाद,प्रसाद की तरह ही खाना होगा।

खैर!मंदिर, मंदिर जैसा क्यूं नहीं लग रहा? ये चोट मेरे परिवार की थी। मेरे दिल को जो दुखा गया वो था जल,जीवन और ज्योति का मिलन। जी हां, जिसे देखने के लिए 20 रुपये का टिकट लेना होता है। ठीक शाम 6.30 मिनट पर हम उस जगह पहुंच गए। सबने अपनी-अपनी सीट पकड़ ली। और थोड़ी देर बाद, एक छोटे से भाषण के बाद शुरू हुआ, लाइटिंग फव्वारे का शो। जो संगीत की धुन पर थिरका। स्वचीज़े पर बैठने वाले के हुनर की तारीफ करनी होगी, लाइट्स और पानी का अच्छा मेल किया। उनके मुताबिक शो में जीवन की शुरूआत और मोक्ष का स्वरूप बताया गया। शो ख़त्म हुआ, सबने तारीफ की, बीच-बीच में तालियां भी पींटी। लेकिन इन सब ने मेरा गुस्सा और बढ़ा दिया।

मन में बस एक ही सवाल आया, ये सैकड़ों-हज़ारों लोग 15 मिनट के इस शो के लिए, जो मेरे नज़रिए से कुछ खास भी नहीं था...20 रुपये आराम से दे सकते हैं,तो फिर क्या वजह है कि नाटक या थियेटर सूने पड़ गए हैं।

वहां तो संगीत, नृत्य, अभिनय, सब कुछ वास्तविक होता है। न केवल वास्तविक, बल्कि बदलता भी रहता है। उसमें संगीत के कई रंग होते हैं। हर विधा के रंगों से सजता है नाटक। लेकिन उसे पसंद नहीं किया जाता। अधिकतर लोग पास की जुगाड़ में रहते हैं, टिकट मुफ्त हो तो और अच्छा है,20 रुपये का टिकट भारी पड़ता है। क्यूं?

फिल्म से थियेटर का कोई मुकाबला नहीं, ये बात मान ली। होना भी नहीं चाहिए। लेकिन इस तरह के शो देखने जब लोग हज़ारों की संख्या में जुट सकते हैं तो एक कला को बढ़ावा क्यूं नहीं दे सकते।

दिल्ली में भारत रंग मंडल का महोत्सव हुआ, लेकिन तमाम खबरिया चैनल में उसकी कितनी रिपोर्ट्स आईं,सबको पता है।नया साल पहले ज्योतिष, फिर नंबर और फिर टेरो कार्ड से दिखाना वो नहीं भूल रहे।शनि कब भारी पड़ेगा, ये बता-बता कर काले कपड़े बिकवा डाले और ज्योतिषों की घर बैठे कमाई बढ़ गई। लेकिन एक-दो चैनल को छोड़ दें, तो किसी ने रंग मंडल के रंगों को अपने स्क्रीन पर नहीं बिखेरा।

इसी बात से एक दिलचस्प वाकया सुनिए। मेट्रो शहरों में 24 घंटे काम का कल्चर है। हमने अपने बॉस से छुट्टी मांगी, जो पता थी मंजूर नहीं होगी। फिर हमने कहा कि हमें सुबह की शिफ्ट दे दी जाए। वजह पूछी गई, हमने सच-सच बता दिया कि थियेटर देखने जाना है। बस फिर क्या था, वो पहले तो मुस्कुराए, फिर हमारी ओर देखकर हंसे और उन्होंने हमें बेवकूफ कहने से भी परहेज नहीं किया। बोल, इस काम के लिए भी भला शिफ्ट बदली जाती है। हम अपना सा मुंह लेकर रह गए। बहुत गुस्सा आया, लेकिन क्या कर सकते थे, इतना ही नहीं, हमारी इस बात का ज़िक्र कर, हम पर हंस कर, कई लोगों ने अपना खून बढ़ाया। लोगों को भले ही ये मज़ाक लगे, लेकिन इसका दर्द दिल में लेकर हम रह गए। जब अक्षरधाम मंदिर में फव्वारों के इर्द-गिर्द बैठी उस भीड़ को देखा, तो अचानक वो टीस फिर से कौंध गई।

1 comment:

Kaukab said...

Lagta hai maine sach hi kaha tha ki "duniya bewaqoofon se chalti hai." Chalo achcha hai kuch log to hain jo theatre ko lekar aaj bhi itne 'touchy' hain. Nahi to kaun pareshan hota hai aaj kal kisi ke liye....